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त्वं विश्व॑स्य मेधिर दि॒वश्च॒ ग्मश्च॑ राजसि। स याम॑नि॒ प्रति॑ श्रुधि॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ viśvasya medhira divaś ca gmaś ca rājasi | sa yāmani prati śrudhi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। विश्व॑स्य। मे॒धि॒र॒। दि॒वः। च॒। ग्मः। च॒। रा॒ज॒सि॒। सः याम॑नि॒। प्रति॑। श्रु॒धि॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:25» मन्त्र:20 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:19» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:20


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह परमात्मा कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मेधिर) अत्यन्त विज्ञानयुक्त वरुण विद्वन् ! (त्वम्) आप जैसे जो ईश्वर (दिवः) प्रकाशवान् सूर्य्य आदि (च) वा अन्य सब लोक (ग्मः) प्रकाशरहित पृथिवी आदि (विश्वस्य) सब लोकों के (यामनि) जिस-जिस काल में जीवों का आना-जाना होता है, उस-उसमें प्रकाश हो रहे हैं (सः) सो हमारी स्तुतियों को सुनकर आनन्द देते हैं, वैसे होकर इस राज्य के मध्य में (राजसि) प्रकाशित हूजिये और हमारी स्तुतियों को (प्रतिश्रुधि) सुनिये॥२०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे परब्रह्म ने इस सब संसार के दो भेद किये हैं-एक प्रकाशवाला सूर्य्य आदि और दूसरा प्रकाशरहित पृथिवी आदि लोक। जो इनकी उत्पत्ति वा विनाश का निमित्तकारण काल है, उसमें सदा एक-सा रहनेवाला परमेश्वर सब प्राणियों के संकल्प से उत्पन्न हुई बातों का भी श्रवण करता है, इससे कभी अधर्म के अनुष्ठान की कल्पना भी मनुष्यों को नहीं करनी चाहिये, वैसे इस सृष्टिक्रम को जानकर मनुष्यों को ठीक-ठीक वर्त्तना चाहिये॥२०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स ईश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे मेधिर वरुण ! त्वं यथा यो जगदीश्वरो दिवश्च ग्मश्च विश्वस्य यामनि राजति, सोऽस्माकं स्तुतिं प्रतिशृणोति तथैतन्मध्ये राजसि राजेः स्तुतिं प्रतिश्रुधि शृणु॥२०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) यो वरुणो जगदीश्वरः (विश्वस्य) सर्वस्य जगतो मध्ये (मेधिर) मेधाविन् (दिवः) प्रकाशसहितस्य सूर्य्यादेः (च) अन्येषां लोकलोकान्तराणां समुच्चये (ग्मः) पृथिव्यादेः। ग्मेति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (च) अनुकर्षणे (राजसि) प्रकाशसे (सः) (यामनि) यान्ति गच्छन्ति यस्मिन् कालावयवे प्रहरे तस्मिन् (प्रति) प्रतीतार्थे (श्रुधि) शृणु। अत्र बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक्। श्रुशृणुपॄकृवृभ्यश्छन्दसि (अष्टा०६.४.१०२) इति हेर्धिश्च॥२०॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथेश्वरेण सर्वस्य जगतो द्विधा भेदः कृतोऽस्ति। एकः प्रकाशसहितः सूर्य्यादिर्द्वितीयः प्रकाशरहितः पृथिव्यादिश्च यस्तयोरुत्पत्तिर्विनाशनिमित्तः कालोऽस्ति, तत्राभिव्याप्तः सर्वेषां प्राणिनां संकल्पोत्पन्ना अपि वार्त्ताः शृणोति, तस्मान्नैव केनापि कदाचिदधर्मानुष्ठानकल्पना कर्त्तव्याऽस्ति, तथैव सकलैर्मानवैर्विज्ञायानुचरितव्यमिति॥२०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे परमेश्वराने या जगाचे दोन भेद केलेले आहेत एक प्रकाशमान सूर्य इत्यादी व दुसरे प्रकाशरहित पृथ्वी इत्यादी गोल. त्यांची उत्पत्ती किंवा विनाशाचे निमित्त कारण काल आहे. त्यात सदैव एकरस राहणारा परमेश्वर सर्व प्राण्यांच्या संकल्पाने उत्पन्न झालेल्या गोष्टींचेही श्रवण करतो, त्यामुळे कधी अधर्माच्या अनुष्ठानाची कल्पनाही माणसांनी करू नये. हा सृष्टिक्रम जाणून माणसांनी यथायोग्य वर्तन करावे. ॥ २० ॥